श्री विष्णुधर्मोत्तर पुराण की प्रकृति विश्वकोशीय है। कथाओं के अतिरिक्त इसमें ब्रह्माण्ड, भूगोल, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, काल-विभाजन, कूपित ग्रहों एवं नक्षत्रों को शान्त करना, प्रथाएँ, तपस्या, वैष्णवों के कर्तव्य, कानून एवं राजनीति, युद्धनीति, मानव एवं पशुओं के रोगों की चिकित्सा, खानपान, व्याकरण, छन्द, शब्दकोश, भाषणकला, नाटक, नृत्य, संगीत और अनेकानेक कलाओं की चर्चा की गयी है। यह विष्णुपुराण का परिशिष्ट माना जाता है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में २६९ अध्याय हैं। अध्याय ५२-१६५ तक शंकरगीता है। इस भाग का आरम्भ हिरण्यगर्भोत्पत्ति और वरहप्रादुर्भाव से होता है। तदनन्तर हाउगोलोक वर्णन आता है जिसके अन्तर्गत पातालवर्णन , लोकवर्णन, द्वीपविभाग वर्णन, जम्बूद्वीपवर्णन,भारतवर्ष वर्णन, जनपद वर्णन, कोसलवर्णन,अयोध्या वर्णन आदि विद्यमान हैं। इसके बाद अनेक उपाख्यानों का प्रतिपादन किया गया है, जैसे - मधुकैटभ वध, धुन्धुमार,सगर , गंगावतरण,अर्जुन दत्तात्रेय आदि। शंकरगीता में नरसिंह अवतार, वामन अवतार, भविष्यफल प्रदर्शन, भक्ति लक्षण, उपवासफल, उपवासविधि, अभिगमकाल, उपादानकरण, इज्याकाल आदि विधि की चर्चा है। तदनन्तर मन्वन्तरवर्णन, कल्पांतवर्णन, कालवर्णन, नक्षत्रवर्णन, नक्षत्र स्नान विधि, ग्रहपूजा विधान, मंडलकल्पना, ग्रहशांति आदि विषय आते हैं। कई अध्यायों में उर्वशी का वर्णन है। अध्याय ११३-१४४ में श्राद्ध का विवरण है। अनेक अध्यायों में द्वादशी वर्णन है। अध्याय १७६-१८० में मन्वंतरों का विस्तृत उल्लेख है। इसके अतिरिक्त राजवंशों का, महात्मयों का, रामायण कथा आदि की चर्चा है।
दुसरे भाग में विधि और राजनीति का वर्णन है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रराज्य प्रशंसा, राज लक्षण, पुरोहित लक्षण, राजमंत्री लक्षण, श्रेष्ठपुरुष और श्रेष्ठस्त्रीलक्षण, राज्याभिषेक काल, विधि,मंत्र, तीर्थ फल, गृहनिर्माण, ब्राह्मण महात्म्य, सावित्री उपाख्यान आदि विषयों का वर्णन है। आयुर्वेद, युद्ध विद्या, फलित ज्योतिष की चर्चा भी की गयी है। दान, दंड, श्राद्ध, वर्णाश्रम, धर्म, आपद-धर्म, संस्कार, स्नान, नरक, प्रायश्चित, शकुन का विवरण अनेक उपाध्यायों में विद्यमान है।
तीसरे भाग में ३५५ अध्याय हैं। अध्याय २२७-३३२ का हंसगीता कहलाता है। इसमें फुटकर रचनाओं का संग्रह है। देवालय निर्माण, पूजन, चतुर्वर्गफल, छंद, मोक्ष-मंत्र, विविध प्रमाण, प्राकृत भाषा, अभिधानकोष,अलंकार, प्रहेलिका, गायन, नृत्य, नाट्य, अंग,रास और वास्तु शास्त्र का विवेचन हुआ है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 'चित्रसूत्र' नामक अध्याय में चित्रकला का महत्त्व इन शब्दों में बताया गया है-
कलानां प्रवरं चित्रम् धर्मार्थ काम मोक्षादं ।
मांगल्य प्रथम् दोतद् गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥
(कलाओं में चित्रकला सबसे ऊँची है जिसमें धर्म, अर्थ, काम एवम् मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः जिस घर में चित्रों की प्रतिष्ठा अधिक रहती है, वहाँ सदा मंगल की उपस्थिति मानी गई है।)
इतने विषयों का और इतने सूक्ष्म रूप से अन्य किसी पुराण में वर्णन नहीं हुआ है और इसी दृष्टि से विष्णुधर्मोत्तरपुराण अन्य सभी महापुराणों और उपपुराणों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण पुराण है। विशेषकर शिल्पशास्त्र के शास्त्रीय अध्ययन के लिए यह खण्ड अपूर्व है। ललित कलाओं संबंधि जो सामग्री इसमें मिलती है इससे पहले अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती। इसकी गणना निस्सन्देह प्राचीन भारत के ललित कलाओं पर सर्वागीण और महानतम शास्त्रों में की जा सकती है। वैसे विशेषत: यह चित्र-सूत्र है, किन्तु कुछ विषय जैसे मान-प्रमाण, रूप और लक्षण, रस, भाव, स्थान और क्षय-वृद्धि ज्यों के त्यों मूर्ति कला के लिए भी लक्षित हैं। चित्र और मूर्ति सम्बन्धी ये लक्षण इससे पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होते। कलाओं का जो प्रयोग और अभ्यास भारत में हो रहा था उसका सबसे पहले शास्त्रीकरण विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण में ही ६५० ई. के आस-पास हुआ। ललित कलाओं सम्बन्धी विवेचन प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने कलाओं में मूलभूत दर्शन की ओर संकेत किया. दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा करनी चाहिये. संगीत और नृत-कलायें धर्म के उपयोग में आयी और उनका रूप मूलत: धार्मिक बन गया। भारत में ललित कलाओं का विकास और परिपक्वीकरण धर्म की छाया में ही हुआ। भारत में धर्म कोई बाहरी आचरण नहीं है, धर्म जीवन का अभिन्न भाग है।