मैथिल-कोकिल महाकवि विद्यापति (1360 से 1450 ईo) की कृति कीर्त्तिपताका काव्य मिथिलेश शिवसिन्ह द्वारा यवनो पर विजय की गद्य-पद्यात्मक वीरगाथा है. यह अवहट्ठ (मैथिल अपभ्रन्श) भाषा में रचित है एवं इसके अनेक अन्श प्राचीन मैथिली भाषा में हैं. विद्यापति की कीर्त्तिलता से सभी सुपरिचित हैं. कीर्त्तिपताका की भाषा भी उसी के समान है. इसका एकमात्र हस्तलेख उपलब्ध हुआ, जिसके आधार पर प्रस्तुत संस्करण संशोधित एवं पूर्णपरिमार्जित रूप में हिन्दी-संस्कृत अनुवाद सहित हुआ है. इसके अर्थानुसन्धान से स्पष्ट हो जाता है कि कीर्त्तिपताका के हस्तलेख पोथी में तीन खण्डित ग्रन्थ मिले हुए हैं. इन तीनो को 'कीर्त्तिपताका' नाम से प्रकाशित किया गया है-
1) एक (अज्ञात-नाम) अवहट्ठ काव्य (केवल एक पत्र)
2) कीर्त्तिगाथा (विद्यापतिकृत अर्जुन राय'की यशोगाथा, शृङ्गार-रस से ओतप्रोत कृष्णविलास जो तालपत्र-2 से 7 तक है
3) कीर्त्तिपताका - आदि भाग खण्डित, पत्र 30 से 38 तक
इन ग्रन्थो में प्रवाहमय उत्कृष्ट सहज कवित्व के साथ अपभ्रन्शकालिक भाषा का स्वरुप एवं अनेक ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित हैं जो इसकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में संपादक द्वारा समीक्षित हैं.
कीर्तिगाथा में मुग्धानायिका के मिलन का शृङ्गारिक वर्णन जैसा उत्कृष्ट है, वैसा वर्णन दुर्लभ है. इसके संस्कृत एवं अवहट्ठ गद्य सीधे बाणभट्ट से होड लेने वाला है. इस काव्य में मध्ययुगीन अनेक परिवेषो की झान्की देखी जा सकती है.