श्री कूर्म महापुराण

श्री कूर्म महापुराण
Product Code: ISBN 81-7081-049-3
Availability: In Stock
Price: Rs.400 Rs.320
Qty:     - OR -   Add to Wish List
Add to Compare

सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार धारण करके इस पुराण को राजा इन्द्रद्युम्न को सुनाया था, पुनः भगवान कूर्म ने उसी कथानक को समुद्र-मन्थन के समय इन्द्रादि देवताओं तथा नारद आदि ऋषिगणों से कहा। तीसरी बार नैमिषारण्य के द्वादशवर्षीय महासत्र के अवसर पर रोमहर्षण सूत के द्वारा इस पवित्र पुराण को सुनने का सैभाग्य अट्ठासी हजार ऋषियों को प्राप्त हुआ।  अतः इस पुराण को कूर्म पुराण कहते हैं।   

पुराणों में वर्णित महापुराणों की सूचियों में सर्वत्र कूर्मपुराण की गणना की गयी है।  पुराण के पांच लक्षणों की दृष्टि से कूर्मपुराण महापुराणों की श्रेणी में आता है। इस पुराण में पुराणों में पांचों प्रमुख लक्षणों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर एवं वंशानुचरित का क्रमबद्ध तथा विस्तृत विवेचन किया गया है एवं सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

कूर्मपुराण स्वयं को पंद्रहवां पुराण बताता है। वैष्णव दृष्टि से पुराणों के तीन वर्ग किये गए हैं - सात्त्वित, राजस और तामस।  पद्मपुराण इसे तामस श्रेणी मैं रखता है।  मत्स्यपुराण के अनुसार कूर्मपुराण में १८००० श्लोक हैं , परंतु नारदीय तथा भागवत पुराण के अनुसार इसकी श्लोक संख्या १७००० है और अग्नि में यह संख्या ८००० ही मान्य है। 

कूर्मपुराण के दो भागों (पूर्व एवं उत्तर) के विषय में स्कन्द पुराण में वर्णन उपलब्ध होता है।  नारद पुराण के अनुसार कूर्म पुराण चार संहिताओं में विभक्त है - ब्राह्मी, भागवती, सौर और वैष्णवी। कूर्म पुराण ने भी इनका उल्लेख किया है।  परंतु वर्त्तमान कूर्म पुराण की केवल एक ब्राह्मी संहिता तथा ६००० श्लोक ही उपलब्ध हैं।  इन विभागों में - पूर्व भाग में ५३ अध्याय तथा उत्तर विभाग में ४६ अध्याय हैं।  हाजरा के अनुसार यह पुराण आरम्भ में पांचरात्र वर्ग का  पाशुपात बनाने के लिए परिवर्तित  कर दिया गया।  

रोमहर्षण सूत तथा शौनकादि ऋषियों के संवाद के रूप में आरम्भ होनेवाले इस पुराण में सर्वप्रथम सूतजी ने पुराण-लक्षण एवं अट्ठारह महापुराणों तथा उपपुराणों के नामों का परिगणन् करते हुए भगवान के कूर्मावतार की कथा का सरस विवेचन किया है। कूर्मावतार के ही प्रसंग में लक्ष्मी की उत्पत्ति और महात्म्य, लक्ष्मी तथा इन्द्रद्युम्न का वृत्तान्त, इन्द्रद्युम्न के द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति, वर्ण, आश्रम और उनके कर्तव्य वर्णन तथा परब्रह्म के रूप में शिवतत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर सृष्टिवर्णन, कल्प, मन्वन्तर तथा युगों की काल-गणना, वराहावतारकी कथा, शिवपार्वती-चरित्र, योगशास्त्र, वामनवतार की कथा, सूर्य-चन्द्रवंशवर्णन, अनुसूया की संतति-वर्णन तथा यदुवंश के वर्णन में भगवान श्रीकृष्ण के मंगल मय चरित्र का सुन्दर निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें श्रीकृष्ण द्वारा शिव की तपस्या तथा उनकी कृपा से साम्बनामक पुत्र की प्राप्ति, लिंगमाहात्म्य, चारों युगों का स्वभाव तथा युगधर्म-वर्णन, मोक्षके साधन, ग्रह-नक्षत्रों का वर्णन, तीर्थ-महात्म्य, विष्णु-महात्म्य, वैवस्तव मन्वतरके २८ द्वापरयुगों के २८ व्यासों का उल्लेख, शिव के अवतारों का वर्णन, भावी मन्वन्तरों के नाम, ईश्वरगीता तथा कूर्मपुराण के फलश्रुति की सरस प्रस्तुति है। 

इस पुराण में सर्वत्र शिव ही मुख्य देवता के रूप में वर्णित हैं।  इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश में किसी प्रकार का भेद नहीं माना गया है।  ये एक ही ब्रह्मा की तीन पृथक मूर्तियां हैं।   ग्रन्थ में शक्ति पूजा पर भी बड़ा ज़ोर दिया गया है।  वह जननी शक्ति हैं।  देवी, परमेश्वरि शिव की शक्ति और अर्धांगिनी की स्तुति ८०० नामों से की गई है।  इसी प्रकार विष्णु और शिव में अभेद होने के कारण विष्णु की शाक्त लक्ष्मी से वस्तुतः भिन्न नहीं मानी गयी हैं।  कार्तवीर्य के  शिव और कुछ विष्णु की पूजा करते थे। वे यह निर्णय नहीं कर पाए की कौन देवता सबसे अधिक पूज्य है। तब सप्तर्षियों ने निर्णय दिया कि जो जिस देवता की पूजा करता है उसके लिए वही देवता है।  

 शिव समस्त देवों के भी आराध्य देव हैं।  यहाँ तक की कृष्ण भी घोर तपस्या के द्वारा प्राप्त शिव के वरदान से ही अपनी पत्नी पत्नी जाम्बवंती से पुत्र उत्पन्न कर सके।  इसमें विष्णु के कुछ अवतारों की भी चर्चा की गयी है।  एक पूरा अध्याय महात्मओं के विषय में है।  सृष्टि के अनन्तर पार्वति की तपश्चर्या तथा शिव के सहस्र नामों का वर्णन है।  इसमें ऋषिवंश, सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश, पुरुवंश, जयध्वजवंश कोष्टुवंश आदि का वर्णन हुआ है। कृष्णमार्कण्डेय संवाद में लिंग महात्मय कथन, व्यासार्जुन संवाद में त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का कथन है।  प्रयाग माहात्म्य, यमुना माहात्म्य भी इस पुराण में हैं।  भुवनकोश के अन्तर्गत सप्तद्वीप कथन, भूलोक निर्णय में द्वीपसागर और पर्वतों का कथन, ब्रह्मपुरी कथन, हेमकूट प्लक्षद्वीप, पुष्करद्वीप , भौगोलिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। 

उत्तरार्ध में ईश्वरी गीता में ज्ञान योग, देवमाहात्म्य ज्ञान योग, ताण्डवकालीन स्वरुप दर्शन, अष्टांग योग कथन , ब्रह्मचारी कर्म , गमनादि कर्मयोग, अध्ययन प्रकार, स्नातक धर्म, भोजनादि विधि, श्राद्धकल्प, अशौच प्रकरण, अग्निहोत्र विधि, यति धर्म, वानप्रस्थ धर्म, प्रायश्चित, विविध तीर्थ महात्म्य, महालयादि, नर्मदा माहात्म्य, प्राकृत प्रलयादि कथन भी प्राप्त होता है। 

हिन्दुधर्म के तीन मुख्य सम्प्रदायों—वैष्णव, शैव, एवं शाक्त के अद्भुत समन्वय के साथ इस पुराण में त्रिदेवोंकी एकता, शक्ति-शक्तिमानमें अभेद तथा विष्णु एवं शिव में परमैक्यका सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।

Write a review

Your Name:


Your Review: Note: HTML is not translated!

Rating: Bad           Good

Enter the code in the box below: