सौन्दर्य के प्रति आकर्षण मानव का सहज स्वभाव है, जो व्यक्ति विशेष कि दृष्टि एवं सोच में बढ़ता है। विषय-वस्तु चाहे जड़ हो या चेतन, स्थूल हो या सूक्ष्म्, सौन्दर्य का सीधा संबन्ध हमारी कला संस्कृति से है। साहित्यशस्त्र में ये अलंकार कहलाते है। यह काव्य के शब्द और अर्थ की शोभा को तो बढ़ाते ही है साथ ही अभिव्यक्ति के ब्रह्म एवं आन्तरिक सौन्दर्य में भी अभिवृद्धि करते है।
"अलंकार प्रदीप " रचना इसी दिशा में किया गया प्रयास है। इसे पाञ्च अध्यायो में विभक्त करके विषय का विस्तृत विवेचन किया गया है। काव्य में अलंकारो का महत्व, अलंकार की परिभाषा, भेद-उपभेद, काव्य में उनका प्रयोग तथा उनका तुलनात्मक ज्ञान विविध दृष्टान्तो के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे विद्यार्थियो में काव्य सृजन कि प्रवृति बढे। वे काव्य में नए-नए अलंकारो, उपमाओ के प्रयोग से सुन्दर काव्य क सृजन कर सके एवं उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता में अभिवृद्धि हो। एक कुशल कवि अपने काव्य में इस सतरंगे भाव - सौन्दर्य कि योजना अलंकारो के माध्यम से ही करता है। इस पुस्तक की रचना के द्वारा इस तथ्य से भी अवगत कराना मेरा उद्देश्य है कि काव्य सृजन करते समय अलंकार काव्य पर हावी न हो पाए तथा कवि का मूलभाव अलंकारो से संपृक्त होकर इस प्रकार अभिव्यक्त हो कि पाठक उससे प्रभावित भी हो जाए और उसे कुछ अस्वाभाविक भी न लगे।
अच्छी एवं उत्कृष्त काव्य-रचना वही मानी जाती है, जिसमे न तो शब्दो के चमत्कार का आधिक्य हो जिससे पाठक या श्रोता उसके मूलभाव पर ध्यान केन्द्रित न कर पाए और न ही इतने क्लिष्ट अर्थो के प्रयोग हो कि कवि के अन्तर्भाव को पाठक जान ही न पाए। अलंकारो के विविध प्रयोगे के द्वारा यह भी ध्यान में रखे कि अलंकारओ का प्रयोग केवल चमत्कार के लिये ही न हो वरन् उनका प्रयोग काव्य की शोभा को बढ़ाने तथा उसमे अभिव्यक्त मूलभाव को सुरक्षित रखते हुए पाठक को आह्लादित करे।